साधना ताई तीर्थली
श्री अशोक पाटिल, हमारे पार्किंसंस मित्रमंडल की गतिविधियों के प्रति हमेशा सजग रहते है। उन्होंने अभी किस्से पार्किंसंस के पर अपनी प्रतिक्रिया कमैंट्स सेक्शन में दी। मुझे चैट के माध्यम से जवाब देना अच्छा लगता है क्योंकि इस तरह वे बातें एवं फीडबैक दूसरों तक भी पहुँच जाते हैं।
उनकी एक बात भय के बारें में थी। उन्होंने एक मरीज़ को अपने शुभचिंतको के साथ बगीचे में टहलते हुए देखा। वे नियमित रूप से आते और उनके शुभचिंतक उनका बहुत अच्छी तरह से ध्यान रखते । उन्हें किसी चीज़ का भय हो ऐसा कभी महसूस नहीं हुआ। मैं इस अवसर पर ये कहना चाहूंगी कि जो अनुभव मैं यहाँ साझा कर रही हूँ वे व्यापक नहीं हैं। पार्किंसंस रोग के प्रति मरीज़ों एवं उनके शुभचिन्तकों की प्रतिक्रियाएं पार्किंसंस रोग की तरह ही विविध हैं। मेरे लिए ये व्याख्या उन अनुभवों पर आधारित होगी जो समाज में अधिकांश लोगों की होती हैं। और अगर समाज में इसके प्रति जागरूता बढ़ रही है तो ये बात बहुत ही अच्छी है।
श्री अशोक पाटिल के दुसरे अनुभव से बात आगे बढ़ाते है। वे एक विवाह समारोह में गए थे जहाँ पार्किंसंस से पीड़ित दो रोगी थे। मंच से मेज़बान दोनों को एक साथ ऊपर आने का आग्रह कर रहे थे और वे दोनों मंच पर आने में आनाकानी कर रहे थे। अंततः श्री पाटिल और उनके एक मित्र मंच पर गए और व्यंग्य करते हुए बोले की अगर वे नहीं आना चाहते तो कृपा कर आप जिद्द न करे। जब श्री पाटिल और उनके मित्र नीचे आये तब उन पार्किंसंस से पीड़ित दोनों व्यक्तियों ने उनका धन्यवाद किया।
लेकिन मेरी राय बिल्कुल विपरीत है। उन रोगियों को मंच पर जाने में शर्म महसूस करवाना मौलिक रूप से गलत है और भय के बीज अनजाने में बोये जाते हैं। इसलिए सभी स्वागत समारोहों में साहब और मैं पोडियम तक जाते हैं और शुभकामनाएं देते हैं। अगर वे तस्वीर के लिए आग्रह करते हैं तो हम उसके लिए भी रुकते हैं। साहब अपनी झुकी पीठ के कारण लगभग ढाई इंच छोटे दिखते हैं , लेकिन उन्हें इस से कोई परेशानी नहीं हैं। बल्कि उनका मुस्कुराता चेहरा देख कर लोगों का उनके प्रति आदर और बढ़ जाता हैं।
मैं एक और उदहारण देना चाहूंगी , श्री मधुसूदन शेंडे और श्री अनिल कुलकर्णी का। अनीता अवचट संघर्ष सन्मान पुरस्कार के मंच पर वे दोंनो विराजमान थे। उन दोनों का व्यक्तित्वव बेहद प्रभावशाली था । डॉक्टर आनंद नाडकर्णी उनका इंटरव्यू ले रहे थे। मेरी तरह ही बाकी दर्शकों पर उनका प्रभाव बहुत ही आश्चर्य जनक था। ऐसा नहीं हैं कि उनका पार्किंसंस से पीड़ित होना किसी तरह से उनकी पहचान थी। उनकी मार्मिक शारारिक भाषा , जिस शांत भाव से वे बैठे , जिस आत्मविश्वास के साथ उन्होंने प्रश्नों का उत्तर दिए , वह लोगों को अभिभूत कर देने वाला था।
इसलिए पार्किंसंस से पीड़ितों को अपने आप में कोई कमी होने का एहसास नहीं होना चाहिए। हम, अपने मंडल के ११ अप्रैल की पार्किंसंस दिवस की सभा में रोगियों को मंच पर प्रार्थना करने के लिए आग्रह करते हैं। कुछ रोगी खड़े होते हैं , कुछ बैठते हैं। हम इसके बारे में ज्यादा नहीं सोचते। कोई चल रहा होता हैं , किसी के हाथ कांप रहे होते हैं। लेकिन ऐसी अवस्था में प्रार्थना की जाती हैं और दर्शकों पर इसका असर पड़ता हैं। जो लोग ये देख रहे होते हैं वे अभिभूत हो जाते हैं और सोचते हैं कि हम इन रोगियों से ये गुण सीखेंगे। जब आप इन रोगियों को डांस फ्लोर पर देखेंगे तो सच में हैरान हो जाएंगे। हाथ , सिर, गर्दन आदि हिल रहे होते हैं लेकिन इन्हें इस बात की परवाह नहीं होती वे बस नृत्य करने में मस्त होते हैं।
पार्किंसंस के मरीज़ को समाज में कहीं भी चलने फिरने में परेशानी हो ये ज़रूरी नहीं हैं। मुझे लगता हैं कि यह महत्वपूर्ण हैं कि वे अन्य आम लोगों की तरह व्यवहार करें। सपोर्ट ग्रुप में शामिल होने के बाद बिल्कुल ये ही होता हैं , हर व्यक्ति का आत्म विश्वास बढ़ जाता हैं। पार्किंसंस के साथ खुश रहना हमारा लक्ष्य हैं और हमारी सभी गतिविधियां उसी की ओर केंद्रित हैं। इसका परिणाम ये हुआ हैं कि इन रोगियों को किसी तरह की मानसिक परेशानी नहीं हैं।
हम आगे भी इस पर चर्चा करते रहेंगे।