आज रामनवमी है, डॉ. देशपांडे की बहुत याद आ रही है। हम राम नवमी के उपलक्ष में दौलत नगर के राम मंदिर जाते थे, वहां पास ही रहने वाले डॉ देशपांडे बाग़ में टहलते हुए मिल जाते थे। पार्किंसंस मित्र मंडल में मुलाक़ात होने के बाद ये नियम सा बन गया था। अगर वह नहीं मिलते तो हम उनके घर चलते जाते। नब्बे साल से अधिक के देशपांडे हमेशा सफ़ेद शुभ्र धोती ,कुर्ता और टोपी पहने हुए मिलते। खुशनुमा व्यक्तित्व ,बच्चों जैसी मासूमियत और मुस्कुराते हुए चेहरे ने पहली ही मुलाक़ात में प्रभावित किया। बोलने के शौक़ीन थे , लेकिन पार्किंसंस के कारण हमें उनकी बात समझने में दिक्कत होती थी। उनके केयरटेकर कुलकर्णी इसके लिए दुभाषिया बनते।
कुलकर्णी दम्पति को डॉ देशपांडे ने अपने और अपनी शय्याग्रस्त पत्नी डॉ वत्सला ताई की देखभाल के लिए घर में रखा हुआ था। कुलकर्णी दम्पति उनके घर के सदस्य की तरह थे, और वे दोनों भी डॉ दम्पति को माता पिता ही समझते थे। कुलकर्णी का कहना था कि डॉ देशपांडे हमारे लिए देवता सामान हैं। उनका घर दूसरी मंज़िल पर था और लिफ्ट भी नहीं थी। उन्हें गोद में उठाकर नीचे लाना बहुत ही कठिन कार्य था। लेकिन कुलकर्णी उन्हें रोज़ नीचे घुमाने ले जाते और तो और पार्किंसंस मित्रमंडल की वार्षिक पिकनिक पर भी ले जाते। पार्किंसंस के बारे में सारी जानकारी रखते। देशपांडे एक मस्त मौला व्यक्ति थे। एकदम उत्साही थे ,अगर उनके मन में आ जाता कि उन्हें हम में से किसी के घर जाना है ,तो बस उन्हें कोई रोक नहीं सकता था। कुलकर्णी अथक प्रयास कर उन्हें ले आते। उन्हें बाहर ले जाने में काफी दिक्कत होती , इसलिए हम कोशिश करते कि हम ही उनसे मिलने उनके घर चले जाएँ। वो बेहद प्रसन्न हो जाते। हमें भी उनसे काफी सकारत्मक ऊर्जा मिलती। श्रीमती देशपांडे की मृत्यु के बाद बच्चों ने डॉ देशपांडे को वृद्ध आश्रम में भेज दिया। कुलकर्णी ने अपना फ़ोन नंबर वृद्धाश्रम में देते हुए कहा कि ज़रूरत पड़ने पर मैं हूँ। मस्त मौला देशपांडे के लिए वृद्ध आश्रम के नियमों में बंधे रहना मुश्किल था, इस लिए वे वहां से भाग जाते। ये देखते हुए वृद्ध आश्रम वालों ने उन्हें वहां से वापिस घर भेज दिया ।कुलकर्णी ने डॉ देशपांडे की सेवा उनकी आखरी सांस तक की।
अपने आखरी समय तक वे सभा में आते और सबसे आगे बैठते थे।अंत में कुछ सवाल पूछते।सभा में उनकी उपस्थिति से वक्ता भी सम्मानित महसूस करते ।उन्होंने अपनी जो आत्मकथा लिखी थी वो उन वक्ताओं को देते। चूंकि वे प्रसन्नचित स्वाभाव के थे ,उनका सारा जीवन भी वैसा ही था। उन्होंने आध्यात्मिकता को सिर्फ पढ़ा ही नहीं था बल्कि जीया था। कुलकर्णी भी कविताएं लिखते थे ,कई बार शेयर भी करते। अनिल अवचट ने ओरिगामी के वर्कशॉप में अखबार से मुकुट बनाना सिखाया था, सबने अपना बनाया मुकुट पहना। देशपांडे जी पर वो मुकुट बेहद सज रहा था। एकदम बच्चे के तरह खुश हो गए थे वो।
अंत तक वे वैसे ही रहे। पार्किंसंस के साथ खुश रहने में उनका जीवन जीने का सलीका, अच्छा स्वाभाव, उनका कुछ भी कर सकने वाला रवैया और कुलकर्णी की प्रेमपूर्ण देखभाल और सेवा का बहुत बड़ा हाथ रहा।
उनके जाने के दो तीन बाद हमें उनकी मृत्यु के बारे में पता चला। उनकी उम्र और बिमारी को देखते हुए उनका निधन अप्रत्याशित नहीं था। उनकी सूंदर यादें ज़रूर हमारे साथ हैं।